शशि थरूर, अनुवाद अमरेश द्विवेदी
विजय और भ्रम
(1946-1956)
अम्बेडकर हर मुद्दे पर अपनी बात मनवा नहीं सके। वह समान आचार संहिता पर लोगों को सहमत करा पाने में असमर्थ रहे, जो कि संविधान के वांछित उद्देश्यों में शामिल थी। वह अनुच्छेद 370 के पक्ष में नहीं थे, जो कश्मीर को विशेष संवैधानिक दर्जा प्रदान करता था, लेकिन उन्हें नेहरू और पटेल की इच्छा का समर्थन करना पड़ा। वह चाहते थे कि संविधान कृषि भूमि, शिक्षा, स्वास्थ्य और बीमा का स्वामित्व राज्य को सौंप दे। ऐसा सोचने के पीछे उनकी मान्यता यह थी कि समाज के आर्थिक ढाँचे से निकले मौलिक अधिकार और ऊँची जातियों के वर्चस्व वाले ग़ैर–बराबरी वाले समाज में अनुसूचित जातियों के मूल अधिकारों को गारंटी नहीं दी जा सकेगी। भारत के लिए अम्बेडकर राष्ट्रपति शासन प्रणाली चाहते थे, लेकिन संसदीय शासन प्रणाली के प्रति बहुमत का तगड़ा झुकाव देख उन्होंने अपनी माँग छोड़ दी। भारतीय राष्ट्रवादी वह व्यवस्था चाहते थे जिसे औपनिवेशिक शासकों ने उन्हें देने से इनकार कर दिया था । वो थी वेस्टमिंस्टर व्यवस्था जिसका लाभ ब्रितानी लोग ले रहे थे। विवाद के हर एक मुद्दे पर जब सर्वसम्मति बन गयी तो संविधान को स्वीकार करने की अम्बेडकर ने मुखर रूप से वकालत की। 25 नवम्बर, 1949 को संविधान के मसौदे को सर्वसम्मति से अंगीकार करने के लिए उन्होंने एक प्रभावशाली भाषण दिया। उनके भाषण को आज भी उद्धृत किया जाता है जिसमें उन्होंने कहा था कि अत्यधिक संघर्ष से हासिल की गयी भारत की आज़ादी और लोकतन्त्र को सँभाल कर रखना ज़रूरी है, ‘अराजकता के व्याकरण‘ (ग्रामर ऑफ़ अनार्की) का परित्याग करना होगा, व्यक्ति पूजा छोड़नी होगी और केवल राजनीतिक ही नहीं बल्कि सामाजिक लोकतन्त्र के लिए भी काम करना होगा |
उन्होंने बार-बार स्पष्ट किया कि लोकतन्त्र शासन का एक तरीक़ा ही नहीं बल्कि सामाजिक संगठन की एक व्यवस्था भी है।
‘क्या इतिहास ख़ुद को दोहरायेगा?’ अम्बेडकर ने संविधान सभा से पूछा। ‘क्या भारत अपनी आज़ादी को क़ायम रख पायेगा या फिर इसे फिर से खो देगा? यह पहला विचार है जो मेरे ज़ेहन में आता है। ऐसा नहीं है कि भारत कभी एक स्वतन्त्र देश नहीं था । मुद्दा ये है कि एक बार भारत ने अपनी आज़ादी खो दी थी। क्या वह उसे दोबारा खो देगा? यही वह विचार है जो भविष्य के लिए मुझे बहुत चिन्ता में डाल देता है,’ अम्बेडकर ने अपने भाषण की शुरुआत में ये बातें कहीं। ‘जो बात मुझे बहुत ज़्यादा परेशान करती है वह यह कि भारत ने केवल एक बार अपनी स्वतन्त्रता नहीं खोयी, बल्कि इसने अपनी आज़ादी अपने ही कुछ लोगों के धोखे और विश्वासघात की वजह से खोयी । धोखे और छल के कई ऐतिहासिक उदाहरण देकर उन्होंने चेतावनी दी : ‘ये निश्चित है कि अगर राजनीतिक दलों ने धर्म को देश से ऊपर रखा तो हमारी आज़ादी दूसरी बार ख़तरे में पड़ जायेगी और शायद हमेशा के लिए चली जायेगी। हमें पूरे दृढ़संकल्प के साथ ऐसा नहीं होने देना है। हमें अपने ख़ून के आख़िरी क़तरे तक अपनी आज़ादी की रक्षा के लिए कृतसंकल्प होना होगा ।
बौद्ध संघों के दौर की ख़त्म हो चुकी लोकतान्त्रिक परम्पराओं का उदाहरण देते हुए अम्बेडकर ने भारतीय लोकतन्त्र के तानाशाही हुकूमत के हाथों में चले जाने के ख़तरों की आशंका जतायी। उन्होंने कहा कि इससे बचने के लिए तीन बातों की ज़रूरत है। पहली, ‘अपने सामाजिक और आर्थिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए संवैधानिक तरीक़ों का ईमानदारी से पालन किया जाये,’ ‘क्रान्ति के हिंसक तरीके का परित्याग किया जाये‘ जिसमें ‘सविनय अवज्ञा, असहयोग, सत्याग्रह‘ भी शामिल हैं। अम्बेडकर जानते थे कि उनके इस कथन से गांधीवादी परेशान हो जायेंगे क्योंकि इसमें महात्मा गांधी के अपनाये तरीक़ों की एक तरह से निन्दा हो रही थी, इसलिए उन्होंने समझाया : ‘जब आर्थिक और सामाजिक उद्देश्यों को हासिल करने के लिए सभी संवैधानिक रास्ते बन्द हो जाते हैं, तब असंवैधानिक तरीक़ों के अनुसरण का औचित्य समझ में आता है। लेकिन जहाँ संवैधानिक रास्ते खुले हों, वहाँ इन असंवैधानिक तरीक़ों को क़तई सही नहीं ठहराया जा सकता है। ये तरीके और कुछ नहीं बल्कि ‘ग्रामर ऑफ़ अनार्की‘ (अराजकता फैलाने वाले तत्त्व) हैं और जितनी जल्दी इनका परित्याग कर दिया जाये, हमारे लिए उतना ही अच्छा होगा । ‘
दूसरी बात जो अम्बेडकर ने जोड़ी वह थी देश के भाग्य को किसी ‘महान व्यक्ति’ के हाथों में नहीं सौंपना, या फिर उसे इतनी शक्ति नहीं देना जिससे वह संस्थानों को नष्ट करने में सक्षम हो जाये।‘ भारत के कई लोग उन महान शख़्सियतों के आभारी हैं जिन्होंने देश की सेवा की, लेकिन आभार जताने का मतलब अनुनय-विनय नहीं होना चाहिए। आयरिश देशभक्त डेनियल ओ‘कोनेल को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा, ‘अपनी प्रतिष्ठा की क़ीमत पर कोई व्यक्ति कृतज्ञ नहीं हो सकता, अपनी लाज की क़ीमत पर कोई स्त्री कृतज्ञ नहीं हो सकती और अपनी स्वतन्त्रता की क़ीमत पर कोई देश कृतज्ञ नहीं हो सकता। अम्बेडकर के लिए, ‘भारत के मामले में यह चेतावनी किसी अन्य देश की तुलना में ज़्यादा ज़रूरी थी। भारत के मामले में भक्ति या फिर समर्पण या व्यक्ति पूजा, यहाँ की राजनीति में जैसी बड़ी भूमिका निभाते हैं वैसी दुनिया के किसी अन्य देश की राजनीति में नहीं निभाते । धर्म के क्षेत्र में भक्ति आत्मा की मुक्ति का मार्ग हो सकती है। लेकिन राजनीति में, भक्ति या व्यक्ति-पूजा निश्चित रूप से दुर्दशा का मार्ग है जिसकी परिणति तानाशाही में होगी।
(निस्सन्देह वह सही थे, और उनकी चेतावनी इक्कीसवीं सदी के समकालीन भारत में प्रतिध्वनित होती नज़र आ रही है, लेकिन इस परिप्रेक्ष्य में इसे विडम्बना कहेंगे कि अम्बेडकर ख़ुद आज अपने अनुयायियों के लिए आलोचना से परे भक्ति का विषय बन गये हैं।)
Excerpted with permission from Ambedkar: Ek Jeevan by Shashi Tharoor, translated by Amresh Dwivedi (Vani Prakashan, 2024)
शशि थरूर 24 किताबों के बेस्टसेलर लेखक हैं जिनमें फिक्शन और नॉन-फिक्शन दोनों तरह की किताबें शामिल हैं। वे मशहूर आलोचक और स्तम्भकार भी हैं।
वरिष्ठ पत्रकार अमरेश द्विवेदी ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से एमफिल और पीएच.डी की डिग्री प्राप्त की है।
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