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    ग्रेट कंचना सर्कस

    विश्वास पाटील, अनुवाद : रवि बुले

    मैसूर प्रान्त के कुर्ग और शिमोगा जैसे ज़िलों समेत दक्षिण हिन्दुस्तान में प्लेग नहीं है। दाजी ने ख़बर निकाली कि वहाँ जनजीवन सुरक्षित चल रहा है। तुरन्त उधर बढ़ने की तैयारी की। लेकिन ऐन मौक़े पर दूसरे ही संकट ने आकर धर दबोचा। दस-ग्यारह बरस की कंचना बेबी बुख़ार की चपेट में आ गई। प्लेग की आशंका से दाजी के होश उड़ गये। उन्होंने तुरन्त मिरज के सरकारी ब्रिटिश हॉस्पिटल में जाँच कराई। प्लेग नहीं था, मगर बुख़ार भी नहीं उतर रहा था। इस हालत में कंचना को ले जाने पर उसकी ही मुश्किलें बढ़ती। उसकी स्थिति बेहद मद्धम लौ वाले दीपक की तरह हैरतअंगेज़ ढंग से कमज़ोर हो चली थी। लेकिन दाजी को डॉ. ब्रूक के अचूक निदान पर विश्वास था।

    बात यह भी थी कि अगर बीमार बेटी को दक्षिण ले भी जायें, तो रखेंगे कहाँ? उसका ननिहाल भी दूर पंजाब में था। आख़िर घोड़े पर सवार होकर दाजी ने कागवाड की राह पकड़ी। अपनी भाभी, सारजा वहिनी को बेटी की गम्भीर परिस्थिति का हाल सुनाया। दाजी जब सेना में थे, तब से ही सारजा वहिनी के पैसों के अभाव को दूर करते रहते थे। उनकी हर माँग पूरी करते थे। दाजी गाँव पहुँचे तो उन्हें देखकर कागवाड के लोग घबरा गये। प्लेग के डर से सब गाँव के बाहर झोंपड़ियाँ बाँधकर रह रहे थे। विचित्र परिस्थिति में फँसे अपने देवर को देखकर सारजा वहिनी ने रंग बदला। सब कुछ जानकर भी उन्हें कोई दुख नहीं हुआ। चेहरे पर अनजाने ही उभर आयी ख़ुशी को लाख छुपाने की कोशिश करते-करते उन्होंने साफ़ नकार दिया, “राजाओं के जैसे इतने हाथी-घोड़े लिये फिरते हो और अपनी बीमार बेटी को मेरे पास छोड़ने की बात करते हो? “

    घर का कोई तो होना चाहिए। सिर्फ़ पाँच-छह महीने की बात है वहिनी… मदद कर दो…. सुनो…”

    ना दाजी ना… बीमार बच्ची का जोखिम मैं क्यों लूँ? कहीं उसे प्लेग हो गया और कुछ ऊँच-नीच हो गयी तो मैं कहाँ उसका बोझ उठाती फिरूँगी…?”

    अपनी भाभी की जुबान पर साँप का यह ज़हर दाजी को सहन नहीं हुआ। वह लौटकर मिरज के हॉस्पिटल आये। डॉ. ब्रूक्स को देखते ही उनके सामने छोटे बच्चे की तरह फूट-फूटकर रोने लगे। एक तरफ़ भारी क़र्ज़ के काले गहरे कुएँ में सर्कस डूब रहा था। दूसरी तरफ़ प्राणों से प्यारी बेटी मरणासन्न स्थिति में सामने बिस्तर पर गठरी बनी पड़ी थी । दाजी की अवस्था देखकर हीरा आत्या और सर्कस के बाकी सहयोगी रोने लगे। डॉ. ब्रूक के साथ काम करने वाली नर्स मार्था आगे आयी। दाजी को उसने कंचना की हर तरह से देखभाल करने का वचन दिया।

    मार्था ने अपने क्वार्टर में कंचना के रहने की व्यवस्था की। डॉ. ब्रूक ने दाजी की पीठ पर अपने भरोसे का गोरा हाथ रखा। दाजी दक्षिण की तरफ़ निकल गये। रात-दिन रसिक जनों और सर्कस के जानवरों की सेवा में लग गये। सौभाग्य से दक्षिण में छह महीने का सीजन दाजी और कम्पनी के लिए बेहद फलदायी रहा। सर्कस बच गया। लोग बच गये। काफ़ी मुनाफ़ा भी हुआ।

    सात-आठ महीने बाद दाजी के वापस लौटने पर कंचना ख़ुशी से नाचने लगी।

    दाजी ने हीरा आत्या से कहा, “वहिनी भारी चिन्ता थी। कंचना बचेगी या सर्कस मरेगा, ऐसे सरोते में सुपारी के जैसा मैं फँस गया था। लेकिन यह देवता की चमत्कार ही है कि दोनों सकुशल हैं। सब ठीक हो गया। “

    बाप-बेटी को एक-दूसरे को कसकर बाँहों में बँधे देख हीरा आत्या का दिल भर आया। ख़ुशी से भीगी आँखों को पोंछते हुए वह बोली, “भाईजीऽ अफ़ग़ानिस्तान की रेतीली ज़मीन पर अपनी माँओं की छाती से चिपके, उनके कलेजे के टुकड़ों पर आपने जो दया दिखाई थी और अपनी नौकरी तक गँवा दी… आज वही दया और पुण्य काम आया है। ये उसी पुण्य का प्रताप है कि आपकी बेटी बच गयी और सर्कस भी साबुत खड़ा है। “

    कंचना उम्र, ज्ञान और गुणों में बढ़ने लगी। कम्पनी के साथ वह असम, बिहार से लेकर लाहौर-कराची और दक्षिण में मदुरै – रामेश्वर तक घूमी । सर्कस के खेलों के साथ उसने बाहर की दुनिया के राग-रंग भी देखने-समझने शुरू कर दिये । वह सहज बुद्धि दुनिया के इशारे भी समझने लगी। ख़ास तौर पर यह कि कंचना, तू एक लड़की है।

    स्त्री का जन्म लेना समाज में जैसे कोई गुनाह है। आस-पास के बूढ़े-बुजुर्ग और उसके पिता की उम्र के लोग उसे समझाते कि भले ही तुझे अच्छा लगे या न लगे, परन्तु जो करने को कहा जाये वह मानना ही पड़ेगा। ऐसी बातों से कंचना का मन खिन्न हो जाता। यह बातें उसे अपना ही नहीं बल्कि पूरी नारी जाति के अपमान सरीखी लगतीं। वह जाकर बिलखती हुई अपने पिता के सामने बरस पड़ती, “ आप पुरुष क्या हम स्त्रियों को चिन्दियों का गट्ठर समझते हैं? उठाया एक जगह से और घर के किसी अँधेरे कोने में खूँटी पर टाँग दिया? ऐसी बेकार बातें मुझसे तो सहन नहीं होंगी। मुझे अँधेरा बिल्कुल पसन्द नहीं। मेरा मन बाहर के उजाले में नाचने और घूमने-फिरने को मचलता है। इसलिए मैं आपसे बिल्कुल साफ़ कहती हूँ। मैं बाहर जाऊँगी और आँगन में अपनी मनमर्जी का नाचूँगी। देखती हूँ मुझे कौन ऐसा करने से रोकता है? “

    अपनी इकलौती बेटी के इन बागी तेवरों से सारंगदाजी का मन खिल जाता। परन्तु तभी उन्हें यह ख़याल आता कि वह एक स्त्री है और उसके हिस्से में कुछ नैसर्गिक और धार्मिक मर्यादाओं की रेखाएँ खींची हुई हैं। यह सोचते ही दाजी हताश हो जाते। साथ ही कई बार उन्हें डर सताने लगता कि कल को उनके बाद, उनकी इस बेटी का क्या होगा। वे अन्दर-अन्दर हिल जाते ।

    कहते हैं कि मनुष्य के जीवन में एकाध मौक़े पर अमृत योग अवश्य आता है। कोल्हापुर में दशहरे के मौके पर शाहू महाराज से भेंट ही दाजी को अपनी आयु का अमृत योग मालूम पड़ता था । उस वक़्त गजरत्न जैसे दिये उनके दो ऐरावत और सात घोड़ों का इनाम ही उनकी सर्कस कम्पनी की नींव बना था। इसके बाद महालिंग, आकाराम जोगता, दगडोबा लोहार, तारानाथ, बटुकनाथ, हीरा आत्या, लिलियन, बैंड मास्टर चार्ली और अनेक ज़िद्दी युवा साथी उनकी मदद को दौड़े चले आये थे। इसे ईश्वरीय कृपा कहें या कुछ और सर्कस की गाड़ी ने रफ़्तार पकड़ ली थी। हीरा आत्या और बाक़ी साथियों से दाजी कहते, “हमारा सर्कस देस परदेस कहीं भी जाने को हमेशा तैयार है। इसलिए कंचना को सब कुछ आना चाहिए और उसे इतनी समझदार होना चाहिए कि आगे चलकर सब उसकी बात मानें। “

    मतलब कैसे? ” साथी पूछते।

    देखो, अपने सर्कस की ट्रेनिंग मिलने पर मूक जानवर भी कैसे समझदार बन जाते हैं। ऐसे ही इन्सान को जब शिक्षा मिलती है तो उसके भी अपने आप गरुड़ के जैसे पंख फूटने लगते हैं। वह ऊँचा उड़ता है, दूर तक सोचता है।”

     

    Excerpted with permission from Great Kanchana Circus by Vishwas Patil, translated by Ravi Bule (Vani Prakashan, 2024)

    विश्वास पाटील मराठी साहित्य के सुप्रसिद्ध उपन्यासकार और नाटककार हैं। उन्होंने जनसाधारण और समाज से सम्बन्धित विभिन्न मुद्दों पर आधारित 13 उपन्यास रचे हैं।  वह ‘साहित्य अकादेमी पुरस्कार’, ‘इन्दिरा गोस्वामी राष्ट्रीय पुरस्कार’, ‘प्रियदर्शिनी राष्ट्रीय पुरस्कार’, ‘भारतीय भाषा परिषद् पुरस्कार’ (कोलकाता) से सम्मानित हैं। भारतीय प्रशासनिक सेवा में अधिकारी रहे।